वर्तमान परिवेश में स्वतंत्रता का मूल्यांकन
सैकड़ों वर्षो की गुलामी के बाद सत्ता के अंतरण से और धरती तथा दिलों के विभाजन से प्राप्त आजादी को भी यथार्थ में आजादी की संज्ञा देने में कतई संकोच न होता, यदि इस देश की अस्सी फीसदी सनता भरपेट पौष्टिक भोजन प्राप्त करती। गरीबी-अमीरी की रेखा से ऊपर उठकर हर बच्चे को मध्यम वर्ग की एक समान शिक्षा सहज उपलब्ध होती। वोट के अधिकार का सौ प्रतिशत उपयोग होता। देशभक्ति की भावना हिलोरें लेती होती और देश के सम्मान के सामने हर सम्प्रदाय के लोग शीश झुकाकर खड़े होते। अर्थ व्यवस्था गिने चुने हाथों में केन्द्रित न रहती। अपनी मातृभाषा में शिक्षा की व्यवस्था की जाती, अन्य भाषाओं का सिर्फ ज्ञानार्जन के रुप में उपयोग किया जाता। प्रदूषण मुक्त धरती और आकाश होता। लोगों के मन प्रदूषित न होते, योग्यता का सम्मान होता। काश कि उच्छूंखलता और स्वतंत्रता में लोग अंतर जान पाते, तो शायद शहीदों की आत्मा को शांति मिल रही होती। आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए आदर्श समाज का निर्माण आवश्यक है। सामाजिक चरित्र आवश्यक है। ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा व नैतिक मूल्यों का विकास आवश्यक है। अधिकारों के बजाय कर्तव्य भावना की प्रधानता आवश्यक है। भारत के सम्पूर्ण सम्प्रभुता की रक्षा सिर्फ सेना से करना संभव नहीं है, इसके लिए समाज को प्रभुता सम्पन्न होना पड़ेगा। व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के स्व अर्थात विशिष्टिता उसकी पहचान को बनाये रखने के लिए सही तत्व ज्ञान, मनोवृत्ति, सही व्यवहार नीति और सही युक्ति का चिंतन आवश्यक है।
सिर्फ नारों से एकता नहीं होती संस्कृति सिर्फ नाच गाने का मंच नहीं है। उपासना स्वातंत्रय ती ठीक है, पर मूल समाज के श्रद्धा व प्रतीकों की रक्षा आत्म गौरव को बनाये रखने के लिये आवश्यक है। हमारी संस्कृति के अन्य आयाम जिनमें त्याग, ईमानदारी, सच्चाई, अंहिसा, प्रेम, नैतिकता, बलिदान, वीरता, भक्ति, कर्तव्य परायणता, चरित्र का महत्वपूर्ण स्थान है, का महत्व गौरांवित किया जाना जरुरी है। जिनका नाम लेते ही वीरता, आदर्श, देशभक्ति दिल दिमाग में हिलोरें लेने लगती है ऐसे महर्षि दधीचि, सम्राट चंद्रगुप्त, अशोक, चाणक्य, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, सुभाष चंद्र बोस, तिलक, लक्ष्मीबाई, मंगल माण्डे, संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, विवेकानंद जैसे मनुष्यों के ऊर्जादायी जीवन कथनाओं को स्कूली किताबों में जगह देने की आवश्यकता ही नहीं समझी जायेगी, जो वह बालमन बड़ा होकर सिर्फ स्वार्थी, संत्रवत भावना व विहीन नागरिक बनेगा। उपरोक्त तत्वों के अभाव में वह समाज व राष्ट्र के लिए तो नुकसानदायी होगा और स्वत: के जीवन में भी अनैतिक, दुराचारी व भ्रष्ट होकर अपने परिवार में भी कलह व क्लेश का कारण बनेगा। लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धति ने पब्लिक स्कूलों को जन्म दिया, जिसे हमने समझकर पोषण किया किन्तु मातृ शिक्षा व संस्कृति की हमने उपेक्षा व अनादर किया, उसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि हमने अपने समाज के बच्चों में शिक्षा देने में गरीबी और अमीरी के आधार पर भेदभाव किया है जिसने बच्चों के बालमन में व्यवस्था के प्रति विद्रोह का बीज बोया है, जिसका दुष्परिणाम आतंक और अपराध के रुप में तथा उसके पोषण व समर्थन के रुप में सामने आया है। नि:संदेह हम अतीत का अतिक्रमण कर सकते है पर उसके माध्यम से विचार कर नये निष्कर्षो को प्राप्त करें, उसकी उपेक्षा कर नहीं। हमे अपने आवाम के हजारों वर्षो के शोषण, पीड़ा व कुण्ठा भरे मन के नैतिक स्तर को उठाने उसे स्पाभिमानी बनाने, कुरीतियों को हटाने का प्रयास करना होगा।
हमने सिर्फ नकल की है। शोषित, पीडि़त, कुण्ठित, स्वाभिमान रहित व्यक्ति को अवसर मिल जाने पर वह सिर्फ अवसर का लाभ उठाने का प्रयास करता है, इसलिए अगर इसका दुष्परिणाम भ्रष्टाचार है तो यह हमारी अदूरदर्शिता का सहज परिणाम है। नदियों, जंगलों की रक्षा, दुधारी जानवरों का पोषण, जो हमारी संस्कृति विरासत है, का हमने मजाक उड़ाया है। शराब रुपी जहर को अर्थ व्यवस्था के आधार के रुप में जोडऩे की गलती की है, जिसका भयावह दुष्परिणाम व्यक्तिगत, सामाजिक व राष्ट्रीय उच्चंखलता के रुप में दृष्टिगत हो रहा है। उच्छंखलता, स्वतंत्रता की विरोधी है, गुलामी की आवाहक है। स्वतंत्रता दिवस पर इस लेख का उद्देश्य है कि उच्छंखलता रुपी विष बेल को काट फेंके। अनुशासन व संयम स्वतंत्रता के आवश्यक तत्व है, जिनके संवर्धन से ही स्वतंत्रता की रक्षा व उसके उद्देश्यों की प्राप्ति संभव है।
समीर कुमार त्रिपाठी, अधिवक्ता दुर्ग
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