व्यंग्य : वकील साहब

रघ्घु। काल खोलकर खुन ले। मैं आज आखरी बार तुम्हें कहे देता हूं तुम अपना रवैया बदल लो। लोफरों की तरह इधर-उधर घूमना फिरना बंद करो। यह क्यॉ निठल्लों की तरह फालतू पड़े रहते हो। कोई ढंग का काम धंधा क्यों नहीं पकड़ लेते। तुमको शरम नहीं आती गजेन्द्र, राजेन्द्र, नवीन ये सब तुम्हारे ही दोस्त है न। कैसी अच्छी अच्छी नौकरी ढूंढ लिये और अपना अपना घर बसाकर सुख शांति से रह रहे है और एक तुम हो कि सत्ताइस बरस के घोड़े हो गये फिर भी आवारागिरी कहीं गई नहीं। एक माह के अंदर अगर तुमने कोई नौकरी या धंधा नहीं किया तो तुम्हारा यहां शहर में रहना बंद। तुमको मेरे साथ गावं चलना होगा। वहां खेती बाड़ी विसरी पड़ी है उसे ही संभालना पड़ेगा। नौकरी करना तो तुम्हारे बस की नहीं बगती। इतना कहके बाबूजी गुस्से में पेर पटकते बाहर निकल गये और मुझे एक माह का अल्टीमेटम दे गये। मैंने बी.ए. किया फिर एम.ए. किया और बेरोजगारी का आलम चलते एल.एल.बी. भी कर लिया। नौकरी करने की कोशिश भी की, यहां वहां आवेदन दिया, दफ्तर के चक्कर भी लगाये। कुछ इंटरव्यू भी दे डाले मगर कुछ मुझमें ही कमी थी या मेरी किस्मत ही लंगड़ी थी मुझे नौकरी नहीं मिलनी थी सो नहीं मिली। उम्र का तबाजा और कुछ बेरोजगारी की स्थिति मैं कुछ असमंजस की स्थिति में अब तक यहां वहां भटकता ही रह गया। इसी बीच टाइम पास कुछ निठल्ले दोस्त भी इक_ा कर लिये थे जो कि मेरे खाली व्यक्त भरने में सहायक बने बैठे थे। लेकिन अब की बार बाबूजी का गुस्सा और अंतिम अल्टीमेटम ने मुझे अंदर से हिला दिया था। दो-चार दिन तब मैं अपने आपको दिमागी तौर से तैयार करने में लगा दिया। एक दिन आखीर मैंने मित्र मंडली में हाथ उठाकर ऐलान कर ही दिया बस अब बहुत हो गया। अब तो कुछ कर ही दिखाना है। जरूर कर दिखाना है। क्यॉ कर दिखाना है यार? एक दोस्त ने पूछा। वकालत करनी है प्यारे, वकालत। सुन लो दोस्तों अब मैं वकालत करके रहुंगा। वकील बनके रहुंगा। मित्र मंडली से उठते हुए कहा-अलविदा यारों, अलविदा। अब हमारी मुलाकात समझो अदालत में ही होगी। जय राम जी की। फिर तो दौड़ धूप करके बार कौंसिल मे अपना नामांकन करके ही छोड़ा। सनद लेकर एक दिन पहुंच गया जिला बार एसोशियेसन के कार्यालय में। आवश्यक फीस श्रम करने के पश्चात मेरा नामांकन अपने संघ में करते हुए मुझे बना दिया विधिवत वकील। बाला चोगा से लदथद जब मैं पहली बार जिला न्यायालय परिसर में दाखिल हुआ तो यहां का बड़ा अजीब आलम था। जहां देखो वहीं सैकड़ों की तादाद में काला बोट धारी महानुभाव यहां वहां भटक रहे थे। बार रुम में तो कम बरामदे में ही ज्यादा चहल पहल थी। लाइन से पचासों टेबल कुर्सी लगे हुए थे और उन पर विराजमान सैकड़ो आंखे हर आने जाने वालों को बड़ी गहरी नजर से यूं घूर रही थी मानो कह रही है-

'आओं प्यारे। यही है आपकी मंजिले। बैठो मेरे पास। यहां मिलेगा न्याय, पूरा न्याय। आपकी हर समस्या का समाधान है मेरे पास। आप बैठिये तो सही इस बैंच पर।'

कुछ भीड़ बैठ भी जाती है और कुछ आगे बढ़ जाती है। हलाकान परेशान लोग चले आ रहे है थे। भीड़ है कि बढ़ती जा रही थी। पुलिस वाले जाने किस-किस को हथकड़ी डाले अदालत के सामने जमावड़ा लगाये बैठे थे। सैकड़ों लोग यहां सैकड़ो अपराध किये बैठे थे और न्याय की तलाश में सारा न्यायालय सर पर उठा रखे थे। भीड़ और भीड़। उनकी इतनी हच-पच को देखकर मेरा दिमाग सनसना उठा था। मैं सोचने लगता हूं ये मेरा ठहरा हुआ शांत सा शहर अपने आंचल में कितना सारा अपराध छुपा रखा है। आगे आगे पुलिसमैन उसके पीछे हथकड़ी में घिसटते मुजरिम और उसके पीछे लसर-पसर परिजन। अदालत परिसर में जहां तहां यही नजारा था। मुझे ऐसा लगा मानो सारा शहर कोई अपराध कर बैठा है। सारे चेहरे मुखौटे पहने से लग रहे थे। अगर मुखौटा उठाया तो जरुर कोई अपराधी नजर आयेगा। उफ्फ क्यॉ होगा इस शहर का, इस देश का। थोड़ी देर के लिये तो मैं सचमुच परेशान हो गया था। फिर सिर को एक तगड़ा सा झटका दिया और शहर की देश की फिकर छोड़कर मैं अपने आपके बारे में सोचने लगा कि मुझे इस भीड़ में कहां फिट होना है। अगर पैर नहीं जमा पाया तो गावं जाकर हल जोतनी पड़ेगी। हल न जोतना पड़े इसलिये डर कर मैंने वकालत में ही अपना पैर जमाना प्रारंभ कर दिया। मगर जनाब वकील का चोंगा पहन लेना और बात थी, वास्तव में वकील बनना कुछा और ही है यह सब इतना आसान नहीं था। दो साल की महनत, मसक्कत, भाग दौड़, करते हुए कानूनी दावं पेंच की बारिकायां सीनियरों की रहनुमाई में सीखता चला गया। दो साल बाद इतनी पहचान बन गई थी कि गावं देहात में रघुनंदन पाठक अब वकील साहब बन गया है। मेरे वकील साहब बनने की शोहरत कुछ ऐसी फैली कि मेरे गावं के पड़ोस वाले गावं के चौधरी जी ने अपनी सुंदर सुशील और गृहकार्य में दक्ष कन्या का हाथ मेरे हाथों में दे कर ही दम लिया। जनाब जब हम गृहस्थ हो ही गये तो शहर के अदद कालोनी में एक अदद सा कमान लेकर गृहस्थी बसा ली। घर है तो घर वाली है और जब घराली हो तो अड़ोस पड़ोस बनने में देर नहीं लगती। तो इसी संदर्भ में हुआ यू कि हमारी श्रीमती जी मिलनसारिता का परिचय देते हुए पड़ोस के शर्माजी जो कि हमारे ही नगर के थानेदार है उनकी श्रीमती जी याने कि मिसेसे शर्मा से जान पहचान कर बैठी और इसी तरह उनका जान पहचान बढ़ते-बढ़ते मोहल्ले की महिला मंडली का रुप अख्तियार कर लिया। हम तो जनाब दिनभर कचहरी में उलझे रहते और श्रीमतीजीओं का जमावड़ा महिला मंडल के रुप में न जाने क्यॉ गुल खिला रहा था। एक दिन मैं जब शाम को घर पहूंचा तो जैसे ही हाथ मूहं धोकर बैठा ही था कि श्रीमतीजी चाय का प्याला थमाते हुए मुझ से बोल । 

शेष अगले अंक में .......


लेखक - भरत स्वर्णकार (अधिवक्ता), मोहन नगर दुर्ग

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