संपादकीय

फरमान से कभी पेड़ों पर फल नहीं लगते
तलवार से मौसम कोई बदला नहीं जाता

पूरे मुल्क में एक बार फिर हमारे विधिक समाज के अहम हिस्से याने न्यायपालिका में विराजमान एक न्यायमूर्ति के खिलाफ कार्यवाही हेतु हमारे मुल्क के मुख्य न्यायाधीश महोदय द्वारा हरी झण्‍डी दिखाने की खबरों ने अन्दर ही अन्दर खलबली सी मचा दी है । सन् १९९३ के बाद सन् २००८ में दूसरी बार इस तरह की कार्यवाही की तैयारी कानून मंत्री द्वारा शुरु कर दी गई है और संभव है कि संसद में महाभियोग लाया जाए। तकरीबन डेढ़ दशक के बाद इस तरह की कार्यवाही वो भी ६ दशक से ज्यादा के हमारे मुल्क की आजादी के सफर में, हमें ऊपरी तौर पर भले ही लगे की यह औसत कुछ कम है पर गहराई से अध्ययन में हम जरुर यह महसूस करेंगे कि धीरे-धीरे ही सही पर हम ``कानून के राज'' की हमारे संवेदनशील और समझदार पूर्वजों की संवैधानिक कल्पना की ओर बढ़ रहे हैं ।

राजधानी दिल्ली में जनवरी २००० में आयोजित स्वर्ण जयंती समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने कहा था की

IT IS NOT AN ……. THE COUNTRY.


not an exaggeration to say that the degree of respect and public confidence enjoyed by the supreme court is not matched by many other institutions in the country.

It is a matter of pride and satisfaction that the judiciary today enjoys credibility far greater than that enjoyed by the other two wings of the state”

हमारे मुल्क़ की दो शीर्ष हस्तियों के उपरोक्त उद्गार ही हमारे न्यायालयों की ऊंची गरीमा व ओहदे का बखान करते हैं और इसमें कोई शक भी नहीं कि हमारे ये न्याय के मंदिर बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं, इस परिपेक्ष्य में ``केशवानंद भारती वि. केरल राज्य (AIR १९७३ SC १४६१) के मामले का जिक्र ही काफी है ।
हमारे संविधान के अनुच्छेद १२४ (४) में उच्चतम तथा उच्च न्यायालयों को न्यायधीशों को हटाये जाने की प्रक्रिया की व्यवस्था की गई है जोकि संयुक्त राज्य अमेरिका, इंग्लैण्‍ड, कनाडा, आस्ट्रेलिया तथा आईरिश संविधान की तरह ही है । इस तरह हमारे सम्मानीय न्यायमूर्तियों को एक कठोर सुरक्षा कवच प्रदान किया गया है । जोकि जरुरी भी है परन्तु इसके साथ उतनी ही शि त से इस उच्च पूज्यनीय पद की प्रतिष्ठा और गरिमा को बनाए रखने की इनसे अपेक्षा भी रखी गई है । व्यवहार में जहाँ निम्न न्यायालयों पर उच्च न्यायालयों का पहरा और कंट्रोल रहता है वहीं दोनों शीर्ष न्यायालयों के लिए ऐसी कोई सीधी व्यवस्था नहीं दिखलाई पड़ती है । और शायद इसी वजह से कभी कभी इंसानी कमजोरी के चलते न्यायदान करने वाले भगवान तुल्य लोग गलती कर बैठते हैं । इसी दर्द और ठेस को हमने हमारे तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश मान. एस.पी. भारूचा के एक वाक्ये पर अपने एक उद्गार में महसूस किया कि

“More than 80% of the judges in the country were honest and incorruptible and the smallest percentage was bringing the entire judiciary into disrepute. Investigation and dismissal from service was possible in the case of subordinate judiciary because control over them lay with the high courts but it was difficult, where the highest judiciary was concerned because for political reasons the only recourse inlaw viz. impeachment would fail for political reasons as a recent instance showed.” [2002 (2) Scale-J-1]


न्यायमूर्तियों पर कार्यवाही की जटिल संवैधानिक व्यवस्था के चलते ही शायद माननीय उच्चतम न्यायालय ने ूीख्रूछश्वड्डी क्तएल्ड्ड फक्. ल.ग्न. भसीऱ्ऱ्ीत्तसीड्डऱूरू (१९९ण्‍) ण्‍ ग्नेे ४ण्‍७ के मामले में काफी हद तक अपनी सीधी जिम्मेदारी का इशारा किया है । परन्तु ३ढ्यड्डद्भख्ल्श्व ब्रूक्ाल्सीख्रूद्भट्टड्ड४ तथा ३ट्टछश्वल्क्रूड्डीाड्यल् ाल्सीख्रूद्भट्टड्ड४ के बीच के फर्क की बारीक़ लकीर को देखना भी बेहद मुश्किल हो जाता है और कभी कभी स्ल् त्तद्भछऱ्ल्ब्ढ्यऱ् द्भश्न त्तद्भट्टड्डऱ् ीत्तऱ् १९७१ ऐसे विषयों पर बाहर खुली चर्चा अथवा विचार व्यक्त करने पर रोकता हुआ महसूस किया जाता है ।

कुल मिलाकर यही समझ में आता है कि एक हद तक की आवश्यक नैतिक पर्दादारी के साथ भी सभी लोग अपना काम पूरी ईमानदारी से करें तो कहीं मुश्किल नहीं है । वैसे भी हमें खुशी और गर्व है कि हमारे परिवार के मुखिया मान. न्यायमूर्ति के.जी. बालाकृष्णन ने हाल ही में ऐसे कई कदम उठाये हैं जिससे आम लोगों का न्यायपालिका के प्रति भरोसा और बढ़ा है । और हमें यह भी विश्वास है कि इसके स्तर को ऊँचा बनाए रखने में हमारी संसद में वर्तमान में मौजूद हमारे तकरीबन १ण्‍० वकील भाई भी इस काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेंगे ।
अपने दिल की बात और इस बात में हुई किसी भी गुस्ताख़ी की माफी माँगते हुए कॉमल वेल्थ लॉ एसोसिएशन के अध्यक्ष डॉ. साईरस दास के इस वक्तव्य का जिक्र करते हुए खत्म करना चाहूंगा कि

Justice is a consumer product and must therefor meet the test of confidence, reliability and dependability like any other product if it is to survive market scrutiny. It exist for the citizenery at whose service only the system of justice must work” Judicial Responsibility, Accountability and Independence are in every sense inseperable. They are and must be embodied in the institution of the Judiciary.


- शकील अहमद सि ीकी
संपादक
९८२७१-०९९७ण्‍

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