आज़ादी/दोज़ख :. पं. अजय मिश्रा अधिवक्ता, दुर्ग
इंकलाब-जिन्दाबाद चारों तरफ इंतिराब था,
आज़ादी का दिवाना मैं, आश्ना को छोड़ा था ।
शिकश्ते में फ्रक़त जूनून था आज़ादी-आज़ादी,
बे-सहर कैद में, हमनें पाली आज़ादी ।।
ज़िन्दगी शीरीं का तगाफुल न कर सकी,
माहवश की याद के साथ पाई अंज़ामे-ज़िन्दगी ।।
ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे प्यारे चमन, तुझ पे हम कुर्बा,
वक्ते-मर्ग ऐ ही दुआ, कि मेरा चमन अब आबाद रहेगा ।।
मु त बाद जन्नत में, नदीम से, वतन की अयादत हुई,
दिले-जार हुए, फिर मौत आ गई, आज़ादे वतन की बेहाली पर ।।
फिरदौज में मरीजे-गम, अब कुर्बानी मर्गे-वफा हो गई,
मिरी माहवश, मिरी औलाद, उफ्फ कहीं यां दोज़ख में तो नहीं ।।
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