राष्ट्रभाषा हिन्दी एकता की सूत्रधार :. समीर कुमार त्रिपाठी, अधिवक्ता, दुर्ग

भाषा सिर्फ संवाद का माध्यम ही नहीं है वरन् संस्कृति और सभ्यता की वाहक है । हमारे देश व समाज की विशालता को ध्यान में रखकर हम देखें तो हर दस-पन्द्रह मील पर भाषा से क्रमिक परिवर्तन का अनुभव होता है और सीमा पर एकीभूत होते हुए दिखता है । वस्तुत: हमारी सभी भाषायें चाहे वह तमिल हो या बंगला, मराठी हो या पंजीब हमारे राष्ट्र की भाषायें हैं । ये सभी भाषायें और उपभाषाएं अनेकों खिले हुए पुष्पों के समान है जिनसे हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की वही सुरभि प्रसारित होती है । इन सभी भाषाओं की प्रेरणा का स्त्रोत देववाणी संस्कृत रही है । यही कारण है कि आप देश की कोई भी भाषा को ले लीजिए उससे वही उदान्त भावनाएं, समान प्रेरणादायी विचार एवं आदर्श प्रतिफलित होते हुए दिखते हैं । श्री रामचन्द्र जी का जो व्यक्तित्व हमें वाल्मिकी के संस्कृत से मिलता है वही हिन्दी में तुलसी तथा तमिल में कम्ब के द्वारा प्राप्त होता है । हमारी राष्ट्रीय भाषाओं की यही विशेष महत्ता है ।

यह एक विडम्बना है कि सन् १९ण्‍० में भारत का संविधान लागू करते समय इस देश की प्राचीन संस्कृति, सभ्यता व ज्ञान की वाहक देववाणी संस्कृत को व्यापक बनाने की कोई मुहिम नहीं की गई यद्यपि देववाणी संस्कृत भारतीय मूल के भाषाओं की जननी है फिर भी यह सोचकर सांत्वना मिली कि संस्कृत की बेटी हिन्दी जो आजादी के बाद आम आदमी की भाषा का रुप ले चुकी थी को राजभाषा का दर्जा देने के लिए संविधान के अनुच्छेद ३ण्‍१ में उसके विकास के प्रयत्नों की रुपरेखा दी गयी है । इस निमित अनुच्छेद ३४४ में राजभाषा आयोग, संसदीय समिति एवं राष्ट्रपति के आदेश की व्यवस्था दी गयी । दुख की बात यह है कि संविधान द्वारा सौंपे गये दायित्व का निर्वाह नहीं किया गया । अनुच्छेद ३४३ में अथवा भाग १७ में जहाँ राजभाषा का विधान हुआ है सहयोगी राजभाषा के रुप में अंग्रेजी अथवा किसी भाषा की कल्पना नहीं की गई है संविधान निर्माताओं ने स्पष्ट रुप से लिखा कि संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी तथा १ण्‍ वर्षों के कलावधि में अंग्रेजी का प्रयोग केवल राजकीय प्रयोजनों के लिए होगी । स्पष्ट है कि १९६ण्‍ के बाद अंग्रेजी का क्या कितना और कब तक स्थान रहेगा इसका निर्णय संसद की विधि के द्वारा होना था लेकिन यह दुखद पहलू है कि अंग्रेजी न सिर्फ सहयोगी भाषा के रुप में वरन् प्रमुख भाषा के रुप में राजभाषा सदृश्य व्यवहार में आने लगी । गुलामी की अवधि में लोगों को नौकरी पाने की कोशिश में अंग्रेजी सीखना मजबूरी थी जो आजादी में रोका जाना था लेकिन आज अंग्रेजी नौकरी पाने की अनिवार्यता बन गयी है ।

दुर्भाग्य का विषय है कि भाषा से संबंधित जो प्रश्न भाषा शास्त्रियों पर छोड़ देना चाहिये था उन पर भी राजनीतिक अपना मत देने लगते हैं । राजनीतिज्ञ भाषा के नाम पर लड़ सकते हैं पर भाषा का सृजन नहीं कर सकते । इसके बावजूद भी यह एक सुखद अनुभव है कि बिना किसी प्रयत्न के लगभग सम्पूर्ण भारत में हिन्दी आज जन सामान्य में बोली व समझी जाने वाली भाषा के रुप में स्थापित हो चुकी है । हिन्दी का कहीं विरोध नहीं है। यदि शासन की नीतियों के कारण अहिन्दी भाषियों को हिन्दी सीखने व पटुता प्राप्त करने की सुविधा व अवसर नहीं मिला तो वे अपने भविष्य को लेकर आशंकित हो सकते हैं । इसलिए शासन की नैतिक जिम्मेदारी है कि ऐसी व्यवस्था की जाये कि अहिन्दी प्रान्तों के बच्चे हिन्दी सीख सके ।

अंग्रेजी सीखने में कोई आपत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि वह आज एक विश्व भाषा है किन्तु अपनी राष्ट्र भाषा के अपमान की कीमत पर, अंग्रेजी जानने वालों को हिन्दी की अपेक्षा श्रेष्ठता का प्रमाण पत्र देकर अंग्रेजी की प्रासंगिता को अनिवार्य किया जाना गंभीर रुप से आपत्तिजनक है, जो प्रबुद्ध, देशभक्त व स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए असहनीय है ।

हिन्दी को राष्ट्र भाषा के साथ राजभाषा के रुप में स्थित करना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि स्वदेशी संस्कृति, सभ्यता व राष्ट्रीयता का पुण्‍य प्रवाह का संवेग जो हिन्दी में दिखायी पड़ता है, चरित्र की सुदृढ़ता की आँच जो हिन्दी में उत्पन्न हो सकती है तथा हिन्दी के शब्दों में अर्न्तनिहित तेजस से मातृभूमि के लिए फांसी के फंदे पर झूल जाने की जो प्रेरणा मिल सकती है किसी विदेशी भाषा से उसकी उत्पत्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।

अगर स्वभाषा को यथोचित सम्मान व दर्जा न दिया गया तो पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति की परिकल्पना अपूर्ण है क्योंकि परानुकरण से बढ़कर राष्ट्र की कोई अवमानना नहीं हो सकती । विदेशी भाषा अपने साथ विदेशी सोच, प्रतिमान व संस्कृति ले आयेगी जो हमारी अपनी संस्कृति एवं प्रतिमानी की जड़े खोदना होगा ।
कोई भी राष्ट्र मानव का समुच्चय मात्र अथवा भूखण्‍ड का टुकड़ा मात्र नहीं है । संस्कृति, प्रतिमान, इतिहास, समाज की मौलिकता राष्ट्र की आत्मा है । विदेशी भाषा को महिमा मंडित करने से हम इस देश की आत्मा पर प्रहार करेंगे इसलिए हर हाल में हिन्दी को सम्मानजनक स्थिति में रखा जाना व बच्चों को हिन्दी के प्रति ललक उत्पन्न करना व्यक्ति व शासन की नैतिक व राष्ट्रीय जिम्मेदारी है।

अतएव राष्ट्रीय एकता एवं आत्मसम्मान के लिए हमें हिन्दी को स्वीकार करना चाहिये, न सिर्फ स्वीकार करना चाहिए वरन् यह हमारा कर्तव्य है कि हिन्दी की कृतियों का प्रचार-प्रसार हो, हिन्दी के विद्वानों का सम्मान हो । हाथी के दाँत दिखाने के और तथा खाने के और यह उक्ति हिन्दी के लिए लागू न हो तभी हम सच्चे स्वराज्य की कल्पना को मूर्त होते देख सकेंगे ।

0 comments:


अभिभाषक वाणी परिवार

श्री सुशील कुमार त्रिपाठी
(प्रधान संपादक)

श्री शकील अहमद सिद्दीकी
(संपादक)

श्री ताराचंद शर्मा
(प्रबंध संपादक)

सलाहकार मंडल

सर्वश्री जनार्दन प्रसाद शर्मा, संतोष चतुर्वेदी, बृजेन्द्र गुप्ता, रामेश्वर प्रजापति, सुदर्शन महलवार, समीर त्रिपाठी, नवजीत कुमार रमन, राजेश महाडिक, सुश्री कंचनबाला सिंह, शिव प्रसाद कापसे, टी.पी.सी.गुप्ता, भारत स्वर्णकार, मो.सगीर, मुरली देवांगन, यजवेन्द्र सिंह, सुभाष सतपथी, मो. मुनीर एवं कुमारी किलेश्वरी शांडिल्य।


मोबाईल संपर्क - 09926615707

  © Blogger template 'Greenery' by Ourblogtemplates.com 2008. और इसे अपने अनुकूल बनाया अभिभाषक वाणी के लिए संजीव तिवारी नें

Back to TOP