घरेलू हिंसा के लिए महिला संरक्षण विधि-एक सार्थक कदम : कु. दीप्ति पौरिया, अधिवक्ता, दुर्ग

संयुक्त राष्ट्र संघ ने महिलाओं के प्रति होने वाले सभी प्रकार के विभेदीकरण के उन्मूलन तथा संरक्षण के लक्ष्य प्राप्ति हेतु समय-समय पर अनेकों उपबंधों की अनुशंसा की है । इस तारतम्य में घरेलू हिंसा अर्थात परिवार के भीतर होने वाली हिंसा के विरुद्ध महिलाओं का संरक्षण नवीन प्रयास है । यह महिलाओं को पूर्ण रुपेण यानी घर और बाहर सुरक्षा प्रदान कर विकास की मूल धारा में सम्मिलित करने का सार्थक कदम है । इस का अनुकरण कर भारत में घरेलू हिंसा के लिए महिला संरक्षण अधिनियम २००ण्‍ लागू किया गया है ।

घरेलू हिंसा मूलत: मानवाधिकार का विषय है । यह अधिनियम भारतीय संविधान के अनुरुप सम्मान व गरिमा के साथ जीने के अधिकार अनु. १४, अनु. १ण्‍(३), अनु. ३९(क) पर आधारित है । जैसा कि नाम से विदित है घरेलू हिंसा अंतरंग संबंध में एक व्यक्ति का अन्य व्यक्ति पर शक्ति और नियंत्रण प्राप्त करने पर आधारित है। जब परिवार का अंतरंग सदस्य शारीरिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक रुप से अन्य को अधिशासित / अपहानि कारित करता है या प्रयत्न करता है और पीड़ित को अत्यधिक भय अनुभव कराता है तब यह अधिनियम प्रभावशील होता है। यह अप्रत्यक्ष हिंसा पर आधारित है और पीड़ित को यह जानकारी नहीं होती कि प्रतिरक्षा कैसे की जाये अत: पीड़ित को पूर्णरुपेण लाभ पहुँचाने की दृष्टि से अधि. में विभिन्न घटकों की सूक्ष्मतम विस्तारपूर्वक व्याख्या की गई है । यथा दुरुपयोगकर्ता जो कि कोई परव्यक्ति नहीं, बल्कि अपना होता है में, वर्तमान या पूर्व पति, ड्यरूख्ल्-रूछ ढ्यीड्डऱ्छल्ड्ड या श्वीऱ्रूछश्र ढ्यीड्डऱ्छल्ड्ड को भी सम्मिलित किया गया है और व्यथित व्यक्ति में वैध/अवैध पत्नी, पुरुष की यौन भागीदार, पुत्री, माता, बहन, बच्चे आते है जो दुरुपयोगकर्ता से किसी भी तरह संबंधित या, आश्रित होते हैं ।

इसके अलावा अधिनियम में अंतरंग आतंकवाद, पत्नी-पति पिटाई, पत्नि-पति प्रहार, घरेलू दुरुपयोग, संपत्ति दुरुपयोग, पारिवारित संबंधी हिंसा की विस्तृत व्याख्या की है जोकि पूरक पक्षकारों द्वारा शारीरिक बल या भावनात्मक दुरुपयोग के साथ हिंसा के प्रयोग द्वारा की जाती है ।

अधिनियम में मोटे तौर पर घरेलू हिंसा को निम्नानुसार वर्गीकृत किया गया है ।
१) शारीरिक हिंसा
२) यौन हिंसा, कौटुम्बिक व्याभिचार,
यौन दुरुपयोग
३) मनोवैज्ञानिक / भावनात्मक हिंसा
४) आर्थिक, सामाजिक दुरुपयोग
5‍) आध्यात्मिक दुरुपयोग

घरेलू हिंसा सभी संस्कृतियों वंश, जाति, आयु, धर्म में व्याप्त है तथा पुरुषों और महिलाओं द्वारा और दोनों पर की जाती है । जिसका कारण कमोवेश, विधि की अज्ञानता, परस्पर शत्रुता व द्वेष की भावना, मानसिक रोग, निर्धनता, अशिक्षा के अलावा व्यक्ति का अहम केन्द्रित व सामंजस्य स्थापित करने की प्रकृति न रखना होता है जो शनै:-शनै: हिंसा का रुप धारण कर लेती है । उक्त तमाम बातों को मद्देनजर रखते हुए इस अधिनियम में व्यथित को सरलीकृत रुप में व्यापक संरक्षण तथा संभाव्य सुरक्षा का उपबंध किया गया है । मानसिक प्रताड़ना, भावनात्मक विपदा के लिए मौद्रिक अनुतोष प्रतिकर व क्षति भुगतान का प्रावधान है। व्यथित को घर से बाहर निकालने जाने के भय को निराकृत कर आवास आबंटन का प्रावधान है। साथ ही इसके अंतर्गत किये जाने वाला अपराध संज्ञेय और अमानवीय माना गया है इसमें १ वर्ष के कारावास और २०,००० रु. जुर्माने का प्रावधान है । सबसे मूल बात व्यथित के एक मात्र साक्ष्य को पूर्ण माना गया है । अधिनियम में त्वरित न्याय का उपबंध तदनुसार परिवाद दाखिल करने के ३ दिन के भीतर प्रथम सुनवाई व वाद निस्तारण ६० दिनों के भीतर होना चाहिये ।

इस प्रकार इस अधिनियम में मानवीय पक्षों पर पर्याप्त बल दिया गया है और व्यथित को सम्पूर्ण सुरक्षा प्रदान कर आत्मनिर्भर बनाने हेतु सार्थक प्रयास किया गया है जोकि आज के परिवेश में प्रासंगिक व आवश्यकता के अनुरुप है ।

1 comments:

Accharya 4 December 2008 at 16:37  

It is really very interested post of you.
Thanks & Regards
Upendra Kr.Sharma
kartike_sharma@rediffmail.com


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