डायरी के छिटके पन्ने :. विकास चौधुरी अधिवक्ता-नोटरी, दुर्ग
बात उन दिनों की है जब छत्तीसगढ़ अविभाज्य मध्यप्रदेश का मणि हुआ करता था । मुझे कुछ मसलों के फैसले के सिलसिले में माननीय उच्च न्यायालय जबलपुर जाना पड़ता था। मैं रेलगाड़ी के आरक्षित डिब्बे में ही अक्सर जबलपुर जाया करता लेकिन उस बार मुझे बस से ही जबलपुर तक जाना पड़ा था, शायद नसीब मुझे यह खास तजुर्बे के रुबरु करवाना चाहता था ।
रात मेरे बराबर वाली सीट पर कौन सहयात्री था मुझे पता नहीं । सुबह नींद टूटने पर जब मैंने बगल वाली सीट पर डायरी से छिटके कुछ पन्ने पड़े हुए देखा तो उसमें कैद इबारत को पढ़ने की जिज्ञासा हुई । बड़ी खुबसूरत लिखावट में किसी ने लिखा था- ``हे प्रभु ! इस पुरुष शासित समाज में नारी है क्या? शायद चाँद की तरह अनस्तित्व का परिचायत ! वो न तो धरती की कल्पना है और न ही आकाश का यथार्थ । नारी तो बस एक वस्त्रखंड है, जिससे पुरुष सदैव अपने दुष्ट कारनामे ढ़ंकता आया है । ठीक-ठीक कहूं तो नारी मांस की बोटी है - नारी वक्ष है, नितंब है, निर्वस्त्र स्कंध है, नंग-जंघ है । इसके अतिरिक्त नारी क्या है ? इसके अतिरिक्त नारी सेवा है, नारी वह जीव है जो अजीवन पुरुष की सेवा में ``अवैतनिक चाकर'' की तरह लगी होती है । वर्ना वह ``नारी'' नहीं हो पाती ।
प्रेम का अर्थ नारी के लिए सेवा है, पुरुष के लिए मेवा । प्रेम का अर्थ नारी के लिए तर्पण है, समर्पण है, त्याग है, वर्जन है, जबकि पुरुष के लिए मात्र ग्रहण है और ग्रहण है । कभी-कभार नारी भटक जाती है तो एवरेस्ट पर चढ़ जाती है, जंबो जेट चलाती है, अंतरिक्ष में चली जाती है । अंतत: घर लौट कर आती है, जैसे बीच समुद्र में - ``उड़ि जहाज को पंछि पुनि जहाज पै आवै ।'' श्रीमती जुंको तांबाई अभी पोते खिलाती है, श्रीमती दूर्वा मुखर्जी अपने संयुक्त परिवार में अभी बेहतरीन रसोईया मानी जाती है और मैं अपने गर्भ में पलते कन्या-भ्रूण की हत्यारिन, पति के तांडव से पीड़ित शासकीय महाविद्यालय से प्राध्यापक का पद छोड़ लांछित जीवन बिताने वाली नारी हूँ । एक छटपटाहट है इस चक्रव्यूह से निकलने की लेकिन मेरे साहस और संकल्प का अभिमन्यु बार-बार इस व्यूह रचना को भेदकर अपनी जान गंवाता है ।''
डायरी से छिटके उन पन्नों में उकेरी गई नारी पीड़ा ने मुझे भीतर तक उद्वेलित कर दिया था। मैं एक पत्नी को अदालत से उसका हक दिलवाकर एक गंभीर आत्म-संतोष का अनुभव कर रहा था । ऐसा शायद इसलिए क्योंकि मैं स्वयं को उस अपराध-बोध से मुक्त करना चाहता जो उन पन्नों की इबारत से मुझे हुआ था । प्रश्न बहुत से हैं स्त्री-जाति के प्रति मेरी सहानुभूति से जुड़े किन्तु प्रश्न करने की हिम्मत मुझमें नहीं क्योंकि मेरे पुरुषत्व पर विविध विशेषणों के व्यंग्य बाण चुभने का भय जो है ।
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