तुम दीप शिखा बन कर जलना

श्रीमती कंचनबाला
अधिवक्ता, दुर्ग

मैं जलती हूँ, ज्वालाआें में, तुम दीपशिखा बनकर जलना
मैं खाद बनूंगी मिट्टी में, तुम कुसुमकली बनकर खिलना
सपनों का तर्पण देखा है, अपनों का घर्षण देखा है
हर फौलादी चट्टानों से, चट्टानें घिसकर देखा है
कैसी आग लगी तन-मन में, कैसे तुमको समझाऊं
जलता रहता हर बहार का हर जर्रा मैंने देखा है
जल जल कर मैं राख बन सकूं फिर भी तुम हंसते रहना
मैं खाद बनूंगी मिट्टी में तुम, कुसुमकली बनकर खिलना
घृणा और नफरत मिश्रित हर ख्वाब अधूरा होता है
इस अंधेरे में भटक भटक कर हर ज्ञानी सब कुछ खोता है
शान, ज्ञान, अभिमान, भूलकर, हर हस्ती लुट जाती है
लुट जाती है, सुखद चांदनी, तभी सबेरा होता है
हर अंधेरा मैं रोक सकूं, तुम अमर सूर्य बनकर उगना
मैं खाद बनूंगी मिट्टी में तुम कुसुमकली बनकर खिलना
मीत मेरे तुम सीधे सीधे, दुनिया कितनी टेढ़ी है
मत खाना ठोकर इन सबसे, यह इतनी अलबेली है
टूट गई है हरी डाल भी डरकर भागा आजकल भी
ईश्वर भी छिप गया न जाने, यह इतनी टेढ़ी मेढ़ी है
भटक गई हूँ मैं तो आकर, पर तुम आज संभलकर चलना
मैं खाद बनूंगी मिट्टी में तुम कुसुमकली बनकर खिलना
हर पगडंडी राह भटकना, उठती पीड़ा ठंडी आहें
आंसू ही बस जीवन मेरा गम ने थामी मेरी बाहें
अनजानी, अनचाही मंजिल आओ तुम्हें बताऊंगी
दूर देश जाना है, मुझको जहाँ बनी कांटो की राहें
मैं तो सदा चली कांटों पर चल फूलों पर अभिमान न करना
मैं खाद बनूंगी मिट्टी में, तुम कुसुमकली बनकर खिलना ।

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