मृत्युदंड का औचित्य (आज के परिप्रेक्ष्य में)

कु. दीप्ति पौरिया, अधिवक्ता, दुर्ग

पिछले कुछ वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर विधि विशेषज्ञों, संविधान विशेषज्ञों, सामाजिक एवं मानवाधिकार संगठनों के बीच मृत्युदंड के खिलाफ आवाजें संचारित हो रही है और उच्च स्तर पर मृत्युदंड समाप्त किये जाने के पक्ष में वातावरण तैयार किये जा रहा है और अब कभी किसी गंभीर अपराध के दोष सिद्ध व्यक्ति को मृत्युदंड दिया जाता है तो इसके विधिक, नैतिक, एवं संवैधानिक प्रकृति एवं औचित्य पर अनेकों सवाल खड़े हो जाते हैं कि क्या मृत्युदंड दिया जाना वर्तमान परिप्रेक्ष्य के अनुकूल है ? इसका विधिक शास्त्रीय औचित्य क्या है ? क्या मृत्युदंड वैध एवं संवैधानिक है ? वगैरह-वगैरह । इस संदर्भ में जब हम बात करते हैं :-
१) प्रथम संभाव्य अपराधी को भयभीत करके उन्हें अपराध करने से रोकना ।
२) द्वितीय अपराधी को पुन: अपराध करने से रोकना, और
३) तृतीय अपराधी को सुधार कर उसे एक सभ्य नागरिक के रुप में परिवर्तित करना ।
जहाँ तक मृत्युदंड के विधि शास्त्रीय विवेचन का प्रश्न है, इनका समर्थन उपर्युक्त प्रथम व द्वितीय कारणों से किया जाता है, जबकि इसका विरोध तृतीय कारणों से किया जाता है ।
दंड का मूल उद्देश्य यह है कि समाज में अपराधों के परिणामों का भय मौजूद रहे और पुन: दूसरे फिर वैसा अपराध न करें । अर्थात सजा के डर से समाज को अपराध से दूर रखना है । यह दीगर बैत है कि मौत की सजा समाज में असहजता पैदा करती है । एक बारगी कोमल हृदय द्रवित हो उठते हैं, यह मानव स्वभाव की सहज कमजोरी है । किन्तु क्या इस आधार पर नृसंश हत्यारों, देशद्रोहियों पर दया दिखाई जानी चाहिये ? वस्तुत: विधि और संविधान का लक्ष्य देश व समाज में विधि व्यवस्था स्थापित करना है । यह तभी संभव है जब कि समाज का प्रत्येक प्राणी निर्भय, स्वतंत्रतापूर्वक व शांति पूर्ण ढंग से जी सके । यदि समाज में बलात्कारी एवं हत्यारे निडरता व स्वछंदता पूर्वक विचरण करने लगे तो निश्चय ही देश की विधि व शासन को कठोर निर्णय लने ही होगा । जो मृत्युदंड के रुप में भी हो सकती है ।
संभवत: इसी कसौटी को आधार मानकर भारतीय विधि में मृत्युदंड से संबंधित निम्न उपबंध किये है -
१) विरलतम से विरल (ड्डीड्डल्क्ऱ् द्भश्न ऱ्स्ल् ड्डीड्डल् त्तीक्ल्क्) मामलों में ही मृत्युदंड दिया जाये,
२) कुछ विशिष्ट परिस्थितियाँ यानी परिशमनकारी परिस्थितियों में मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित किया जाये, तथा
३) संविधान के अनु. ७२ व १६१ के अंतर्गत राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा क्षमादान की शक्ति।
प्रथम उपबंध विरलतम से विरल मामलों की उच्चतम न्यायालय ने माछी सिंह बनाम पंजाब पंजाब राज्य (१९८३) के वाद में निम्नानुसार व्याख्या दी है ।
विरलतम से विरल मामला तब ही समझा जायेगा जबकि -
१) जहाँ कि हत्या इतनी क्रूरता, निर्दयता या नृशंसनापूर्वक की गई है कि उसे समाज एक घृणितम कार्य माने जैसे किसी व्यक्ति के शरीर को टुकड़े-टुकड़े कर देना, घर में आग लगाकर जिंदा जला देना ।
२) जबकि हत्या के पीछे गोर अनैतिकता छिपी हो जैसे किराये के हत्यारों द्वारा की गई हत्या, सम्पत्ति उत्ताराधिकार में की गई हत्या, मातृभूमि के साथ ग ारी करने की गई हत्या ।
३) समाज विरोधी अथवा वीभत्स या घृणित उ ेश्यों से की गई हत्या, जैसे दहेज हेतु दुल्हन की हत्या या किसी हरिजन की हत्या ।
४) अपराध की गंभीरता जैसे परिवार के लगभग सभी सदस्यों की हत्या, किसी जाति विशेष के बहुमत से लोगों की एक साथ हत्या अथवा किसी एक स्थान, गाँव तथा मोहल्ले के बहुत से लोगों की एक साथ हत्या ।
५) जिस व्यक्ति की हत्या की गई हो, उसका व्यक्तित्व जैसे निरीह शिशु अथवा किसी जनप्रिय नेता की हत्या इत्यादि ।
द्वितीय उपबंध अनुसार वे परिस्थितियाँ जो परिशमनकारी नहीं है, अर्थात जिनमें मृत्युदंड हो सकती है निम्न है -
१) जब हत्या पूर्वनियोजन के फलस्वरुप और क्रूरतापूर्वक की गई हो ।
२) जब हत्या घोर अनैतिकतापूर्वक की गई हो।
३) जब लोक सेवक की हत्या उसके अपने कर्तव्यपालन के दौरान की गई हो ।
४) जहाँ हत्या दंड प्रक्रिया संहित १९७३ की धारा ४३ (प्राइवेट व्यक्ति द्वारा गिरफ्तारी) के अंतर्गत कर्त्तव्य पालन के दौरान की गई हो । अब इन दोनों मानकों का कठोरतापूर्वक निर्वचन कर मृत्यु दंड दिया जाये तो वह वैध संवैधानिक तथा न्यायोचित माना जाना चाहिए ।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कुछ फैसलों में स्पष्ट मत व्यक्त किया है कि मानवता के आधार पर या सिर्फ सहानुभूति के आधार पर अपर्याप्त सजा देने से न्याय पालिका को ज्यादा नुकसान होगा । यदि कोई व्यक्ति जानबुझकर, निर्ममता और नृशंसनापूर्वक हत्या करता है तो निश्चित ही यह मानवता के विरुद्ध अपराध है । ऐसी स्थिति में यदि हत्यारे को मृत्युदंड से कम सजा दी गई तो इससे विधि शास्त्र के सामाजिक संरक्षम के उ ेश्य की पूर्ति नहीं हो पायेगी । वैसे भी जिस व्यक्ति ने स्वयं मानवता के विरुद्ध अपराध किया हो वह स्वयं मानवता के नाम पर मृत्युदंड से बचने का तर्क नहीं प्रस्तुत कर सकता ।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में समय की मांग यह है कि जब महानगरीय समाज और संस्कृति में जहाँ आरुषि जैसी मासूम बच्ची को स्वयं उसके माता/पिता अपने अनैतिक क्रिया कलापों की बली चढ़ाने से नहीं हिचकते, वहाँ विधि का कठोर, पालन किया जाएं, और अपराधी को यथोचित दंड दिया जाएं । ना कि लचीला व्यवहार अपनाकर दंड में सुधारात्मक या उपचारात्मक सिद्धांत का अनुपालन कर, मात्र एक व्यक्ति के दंड को कम करके हजारों अपराधियों के मनोबल को बढ़ाने वाला निर्णय लिया जाये ।

जिला न्यायालय की गरिमा हेतु सुझाव

दुर्ग । जिला न्यायालय में आये दिन असमाजिक तत्वों के द्वारा गाली गलौच करते रहना या न्यायालय परिसर में सरेआम शराब पीकर गंदे-गंदे शब्दों का इस्तेमाल किया जाना जिससे दिन-प्रतिदिन न्यायालय सहित अधिवक्ताआें की प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, गरिमा को क्षति पहुँचती है । साथ ही न्यायालय परिसर में दलालों की संख्या में बेहिसाब बढ़ोत्तरी हुई है जिसके साथ दलालों के अवैध कारोबार के साथ-साथ न्यायालय परिसर में व्यवसायिक परिसर में भांति चना-मुर्रा, फल-फूल वगैरह एवं कपड़ा आदि के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की वस्तुएं अज्ञात व्यक्तियों द्वारा विक्रय की जाती है जिसमें न्यायालय सहित अधिवक्ताआें की व्यवसाय प्रभावित हो रहा है ।
प्राय: ९०% प्रकरणों में जमानत करवाई जाती है और फर्जी जमानतदारों एवं दलालों के कारण न्यायालय का वातावरण दूषित हो रहा है । अधिवक्ता संघ दुर्ग के साथ-साथ जिला न्यायालय के अधिकारियों के साथ संयुक्त रुप से न्यायालय परिसर में होने वाले अवैध व्यक्तियों (दलालों) के खिलाफ जनहित में आवश्यक कार्यवाही किया जाना न्यायोचित होगा जिससे कि न्यायालय सहित अधिवक्ताआें के मान-सम्मान, प्रतिष्ठा एवं गरिमा को धूमिल होने से रोका जा सके एवं न्यायालय परिसर में आम नागरिकों एवं अधिवक्ताआें के साथ-साथ न्यायालय में न्याय की गरिमा को सुरक्षित रखा जा सके । अभिभाषक वाणी के माध्यम से उक्त सुझाव देने वालों में अधिवक्तागण सर्वश्री प्रमोद तिवारी, नवाब मोहम्मद, चंद्रशेखर मिश्रा, विजय बन्धे, विष्णु प्रसाद देवांगन, हेमलता अग्रवाल व कृष्णा बांधे शामिल है ।

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