दो कविताएं

समीर कुमार त्रिपाठी
अधिवक्ता, दुर्ग

ग जब की दास्ताने हैं ये हिन्दुस्तान है यारो
यहाँ तो मौत को धकिया के होता काम है यारों
पूँछती है मौत करुं कैसे नमन तुमको ?
दीवारों में चुने जाकर भी तुम हँसते हो दीवानों ?

यहाँ मरता नहीं कोई, अमर हैं आत्माएं सब
यहाँ उपकार होता है, नहीं कीमत कोई उन पर,
देवों को भी जब आयी जरुरत वे यहाँ आये
दधिचि ने स्वयं की हडि्डयाँ भी दान दी यारों ।।

यहाँ के पेड़ पत्थर नदी पर्वत सभी पूजा धाम
आकाश धरती चाँद सूरज को करें आहवान,
कितना है ऊँचा मूल्य है कण-कण यहाँ भगवान
इसलिए नारायण यहाँ अवतरित हैं यारों ।।

यहाँ के देश भक्तों की कथाएं किस तरह गायें
वरणकर मृत्यु जिनने राष्ट्रहित के मार्ग बतलाएं
शिवा, राणा, भगत, आज़ाद, बिस्मिल, बोस, गाँधी तो
है परिचायक यहाँ पर राम तो हर घर में है यारों ।।


यूं अचानक आपका मिलना बहुत अच्छा लगा
मन लुभाते फूल सा खिलना बहुत अच्छा लगा ।।
राह लम्बी दूर मंजिल रात अमावस की घनी
तेरी यादों का दिया जलना बहुत अच्छा लगा ।।
जबसे सुना इस रात तुम आओगे मेरे गाँव में,
सुन सजीली सांझ का ढ़लना बहुत अच्छा लगा ।।
मेरी उम्मीदें लहर जैसे किनारे लौटती
सीपियों के संग संग चलना बहुत अच्छा लगा ।।
दौर ए मुश्किल राह में हर कोई खुदगर्ज था
तेरे साये से मगर छलना बहुत अच्छा लगा ।।

1 comments:

रचना गौड़ ’भारती’ 15 September 2008 at 11:28  

बहुत अच्छी कविता है। लिखतें रहें!


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