मानव अधिकार और मौलिक अधिकार के मध्य शरीर व आत्मा का संबंध है
अ. सुधीर तिवारी, अधिवक्ता, दुर्ग
भारत का संविधान जिसे स्वतंत्रता के पश्चात तत्काल तैयार किया गया था, जिसका उद्देश्य एक ऐसा समाज स्थापित करना जो विधि संगत हो तथा मानव के हित में हो । जिसेक अन्तर्गत समस्त देशवाशियों को बिना किसी भेदभाव समान अवसर, शांति और सुरक्षा के वातावरण में गरिमामयी माहौल में जीने का अधिकार मिल सके ।
जैसे कि मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा २ (घ) में परिभाषित किया गया है । ``मानवाधिकारों'' से तात्पर्य - जीवन, स्वतंत्रता, समता एवं व्यक्ति की गरिमा से है जिन्हें संविधान द्वारा प्रत्याभूत किया गया अथवा जो अर्न्तराष्ट्रीय प्रसंविदा में दिये गये हैं, एवं भारतीय न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय है ।
परिभाषा में सुस्पष्ट है कि न्यायलयों द्वारा मानवाधिकारों की सक्रिय रुप से रक्षा करने की बात स्वीकार की गयी है । जिसके संबंध में अर्न्तराष्ट्रीय प्रसंविदा पठनीय है - जैसे सार्वभौमिक घोषणा पत्र के अनुच्छेद १ से ३० तक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों की अर्न्तराष्ट्रीय अधिकारों की अर्न्तराष्ट्रीय प्रसंविदा १९६६ के अन्तर्गत अनुच्छेद ६ से २५ तक, सिविल तथा राजनीतिक अधिकारों की अर्न्तराष्ट्रीय प्रसंविदा १९६६ के अन्तर्गत १ से २७ तक के अधिकारों बालकों के अधिकारों की घोषणा स्त्रियों के अधिकारों पर कन्वेशन ।
प्रत्येक देश के संविधान ने अनेक अर्न्तराष्ट्रीय घोषणा पत्र, समझौता तथा सार्वभौमिक चार्टर के उपबंधों को अंगीकृत किया है या संशोधन स्वरुप अपने संविधान में स्थान दिया है । भारत के संविधान में भी मानवाधिकारों की अर्न्तराष्ट्रीय घोषणा पत्र को प्रत्याभूत किया गया है । राज्य नीति निर्देशक तत्व के अर्न्तगत लोक कल्याणकारी राज्य बनाने की द्यिष्टकोण से हो या मौलिक अधिकार के रुप में प्रतिष्ठापूर्ण ढ़ंग से गरिमामयी माहौल में जीवन जीने के अधिकार प्रदान करने के लिए गारंटी प्रदान की गई है ।
सन् १९८० से १९९० के मध्य जब आतंकवाद के रुप में नया वाद भारत में अपना जड़ मजबूत करने लगा, खालिस्तान की मांग सर चढ़कर बोलने लगा । प्रथकता वादियों ने कश्मीर को देश से अलग करने के लिये अपनी आवाज बंदूक की गोलियों से निकालने लगे । असम अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में बोड़ो, नागा इत्यादि के प्रणेता ने आतंक की आग में घी डालने की पूर्णजोर प्रयास किया । मानवाधिकारों का अत्याधिक हनन हुआ आंतरिक संघर्ष बढ़ा, अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय भी भारत में ंमानवाधिकारों की स्थिति के प्रति चिंतित रहा जिसके कारण मानव के अधिकारों के प्रति सरकार जागरुक हुई और मानवाधिकर संरक्षण अधिनियम १९९३ पारित किया गया । मानवाधिकार एवं मूल अधिकार के बीच के संबंध शरीर और आत्मा का संबंध विद्यमान है ।
जोगिन्दर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के तथा अन्य (१९९४ क्रिमिनल लॉ. जर्नल १९८१) में उच्चतम न्यायालय ने टिप्पणी की है कि किसी नागरिक के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा के हित में तथा शायद पुलिस अधिकारी के हित में उसके लिए विवेक पूर्ण होगा कि शिकायत की वास्तविकता और वैधता की जाँच करने के पश्चात उस व्यक्ति का अपराध में शामिल होने तथा गिरफ्तारी की आवश्यता होने के बारे में समुचित रुप से संतुष्ट हुए बगैर पुलिस द्वारा कोई भी गिरफ्तारी नहीं किया जाना चाहिये ।
अत: प्रस्तुत प्रकरण की विवेचना कर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि चाहे मानवाधिकार हो या मौलिक अधिकार संविधान द्वारा गारंटी दी गई है ।
प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन १९४० क्रि.ला.ज. ९३० ।
तिहाड़ जेल में बंद विचाराधीन कैदी शुक् ला ने उच्चतम न्यायालय को एक टेलीग्राम भेजा गया था कि उसे तथा कुछ कैदियों को बलपूर्वक हथकड़ियाँ लगाई जाती है इस पर उच्चतम न्यायालय ने भर्त्सना करते हुए कहा कि यह भारत के संविधान के अनुच्छेद २१ (प्राण का अधिकार) में प्रत्याभूत मौलिक मानव गरिमा के उल्लंघन है।
इसी प्रकार मानव अधिकार की सर्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद ९ में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढ़ंग से गिरफ्तार, निरुद्ध या निर्वासित नहीं किया जायेगा ।
मेनका गाँधी बनाम भारत संघ के मामले में अनुच्छेद २१ के अधीन बंदी व्यक्ति ऋजु प्रक्रिया की मांग कर सकता है ।
इत्यादि न्यायिक दृष्टांत भी जीवन के स्वतंत्रता, समता, गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकारी के मौलिक अधिकार एवं मानव अधिकार के प्रतिबिंबित उदाहरण है । मानव अधिकारों को भारतीय संविधान में पर्याप्त मान्यता दी गई है । जो मानव अधिकार संविधान के भाग ३ में है वे मूल अधिकार है और जो भाग ४ में है वे
राज्य के नीति निर्देशक तत्व के रुप में जाने जाते हैं। इसी प्रकार से उन अधिकारों का प्रर्वतन भी संविधान के अनुच्छेद ३२ के अधीन उच्चतम न्यायालय द्वारा तथा अनुच्छेद २२६ के अधीन उच्च न्यायालयों द्वारा प्रर्वतनीय है । इसी प्रकार से संविधान के भाग ४ के विषय लोकहितवाद के रुप प्रवर्तनीय हो गये हैं ।
मानव अधिकारों के बारे में चिन्तन करने १७१ देशों के प्रमुखों ने १४ जून से २५ जून १९९३ तक विएना में इकट्ठा हुए जिसमें मानव अधिकारों की अभिवृद्धि और संरक्षण पर जोर दिया वही दूसरी ओर मानव अधिकार और मूल स्वतंत्रताएं सभी मानव में जन्मजात अधिकार है उनका संरक्षक एवं अभिवृद्धि सरकारों का प्रथम दायित्व है, पारित कर राज्यों की बाध्यताएं तय की गई है ।
कुछ अधिकार इस प्रकार से उदाहरण स्वरुप लिए जा सकते हैं जिनको संविधान में भी स्थान दिया गया है :-
उपरोक्त विलीनीकरण से स्पष्ट है कि मानव अधिकार का इतिहास कितना भी पुराना क्यों न हो वह प्राकृतिक न्याय के संबंध से जुड़ा हुआ है । मोतीलाल बनाम उत्तरप्रदेश राज्य आई.आर.एल.आर. (१९५१) इलाहाबाद ३६९, ३८७ एवं ३८८ में प्रतिपादित न्यायिक दृष्टांत स्पष्ट करते हैं कि मूल अधिकार ही मानव अधिकार है ।
सुधीर तिवारी
अधिवक्ता
मानसेवी प्राध्यापक, से.र.चं.सु.विधि महा., दुर्ग
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