न्यायायिक प्रक्रिया में अनापेक्षित विलम्ब के सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय के दिशा-निर्देश
अ. त्रिभुवन प्रताप चंद गुप्ता
अधिवक्ता, दुर्ग
समय-समय पर सुनवाई के दौरान विभिन्न प्रकरणों में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह मनतव्य प्रकट किया जाता है कि जन सामान्य को न्याय मिलने में होने वाले विलम्ब पर ध्यान देकर उन्हें दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। एक प्रकरण में तो जिसमें निजी आवश्यकता के आधार पर मकान खाली कराने हेतु वाद दायर किया गया था, सुनवाई ४२ वर्षों तक खिंचती रही इस दौरान मूल वादी पक्षकार गिरधारी लाल गिट्टानी की तो मृत्यु तक हो गई व उसकी विधवा व बच्चे केस लड़ते रहे । उक्त प्रकरण पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय में उस समय पदस्थ मुख्य न्यायाधीश एस. राजेन्द्र बाबू व न्यायाधीश जी.पी. माथुर की खंडपीठ ने मनतव्य प्रकट करते हुए राज्यों के समस्त् उच्च न्यायालयों को ऐसा घोर रुख न अपनाने की सलाह दी जिससे कि जन सामान्य का न्याय व्यवस्था से विश्वास ही उठ जावे । उक्त प्रकरण में म.प्र. उच्च न्यायालय के निर्णय को निरस्त करते हुए राय व्यक्त की और आगे भी कहा कि ऐसा रुख पक्षों को न्याय प्रक्रिया से बाहर जाकर अपनी सम्पत्ति का अधिकार पाने हेतु अन्य अवांछनीय मार्ग अपनाने को प्रेरित कर सकते हैं ।
एक अन्य प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायाधीश अरुण कुमार व ए.के. माथुर ने राजस्थान उच्च न्यायालय के एक निर्णय को निरस्त करते हुए मत व्यक्त किया कि बिना नोटिस जारी किए भी किरायेदार के विरुद्ध बेदखली का प्रकरण दर्ज किया जा सकता है व आगे कहा कि इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ पूर्व में ही अपना मनतव्य प्रकट कर चुकी है ।
यह सामान्य अवधारणा है कि विलम्बित न्याय या निर्णय में देरी का कहीं कोई प्रावधान नहीं है व इसे प्रक्रिया की निकृष्टता की श्रेणी में रखा जा सकता है । एक अन्य प्रकरण में पटना उच्च न्यायालय द्वारा अंतिम सुनवाई पश्चात निर्णय घोषित करने में ९ माह के विलम्ब को उच्चतम न्यायालय द्वारा इसे गंभीरता से लेते हुए उस पर रोष व क्षोभ प्रकट किया था । न्यायमूर्ति के.टी. थामस व आर.पी. सेठी द्वारा भी २-३ माह की अवधि सुनवाई पश्चात निर्णय हेतु पर्याप्त माना है, व कोई भी पक्ष इसके पश्चात तत्संबंधी मांग कर सकता है । विलम्बित प्रकरणों की समीक्षा के दौरान एक उच्च स्तरीय समिति ने अंतिम सुनवाई व निर्णय घोषित करने के बीच अधिकतम समयावधि छ: सप्ताह रखने की अनुशंसा की है व माना कि निर्णय घोषित करना भी न्याय प्रक्रिया का एक अंग है । अत: उसका भी बिना किसी विलम्ब के परिपालन करना चाहिए ।
माननीय श्री राकेश भटनागर ने ठीक ही कहा है कि हमारे जैसे देश में जहाँ जनता न्यायाधीश को भगवान के बाद दूसरा महत्वपूर्ण दर्जा देती है व इस आस्था को बनाये रखने का प्रयत्न किया जाना चाहिए । न्यायमूर्ति थामस व न्यायमूर्ति सेठी ने भी ऐसा ही मनतव्य प्रकट किया है ।
प्रकरणों के निपटारों में विलम्ब की शिकायतें व उनके निराकरणों से समुचित उपायों का अभाव यह प्रभाव डालता है कि कुछ उच्च न्यायालय अभी उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देशों के परिपालन में असफल रहे हैं । न्याय प्रक्रिया में खतरा स्वयं न्याय प्रक्रिया में अन्तर्निहित है व कुछ लोगों की गफलत न्याय प्रक्रिया के चमकदार गौरवशाली स्तर को धूमिल बनाने में सहायक हो रही है । त्वरित न्याय सिद्धांत व उद्देश्य प्रक्रिया के मूल स्वरुप में ही निहित है ।
लेखक ने अनेक प्रकरणों में सुनवाई के दौरान पाया है व उसकी अपनी निजी राय भी है कि किरायेदारी बेदखली जैसे प्रकरणों में ही अत्याधिक विलम्ब होता है व ऐसे समस्त प्रकरण एक ही तराजू में ही तौले जाते हैं जबकि इनका वर्गीकरण कर उन मामलों में जहाँ समुचित दस्तावेज जैसे पंजीकृत लीज, डीड आदि, अन्य साक्ष्य उपलब्ध हों, चेकों के अनादर के प्रकरण जिसमें दस्तावेज ही मुख्य है आदि पर समयबद्ध सीमा में निर्णय घोषित किया जा सकता है ।
कुछ अपराधों के प्रकरणों में यदि संबंधित पक्ष जैसे पुलिस पक्षकार अधिवक्ता प्रशासन व न्यायालय गंभीरता पूर्वक सहयोग करें तो उन्हें भी बिना विलम्ब निर्णिय किया जा सकता है । राजस्थान के एक न्यायालय द्वारा बलात्कार के एक प्रकरण में २१ दिनों में निर्णय सुनाकर एक इतिहास रच दिया है यद्यपि सिविल व क्रिमिनल प्रोसीजर कोड में पिछले दिनों कुछ संशोधन फिर गये हैं जिससे न्याय प्रक्रिया में होने वाले विलम्ब को कम किया जा सके पर स्वविवेक व अपवाद शामिल हो जाने से वांछित परिणाम प्राप्त नहीं हो पा रहे हैं ।
अनेक बार पक्षकार व अधिवक्ता अपना पक्ष कमजोर पाकर कुछ और अधिक समय पर सम्पत्ति के उपयोग व कुछ समय तक सजा टालने के उ ेश्य से अनावश्यक आवेदन लगाकर या सुनवाई में स्थगन लेकर विलम्ब कराते हैं पीठासीन अधिकारियों को इसे भांप कर इस प्रवृत्ति पर रोक लगानी चाहिये व भारी व्यय/जुर्माना लगाना चाहिए। जस्टिस सब्बरवाल ने गुजरात में राष्ट्रीय ला यूनिवर्सिटी की आधारशिला रखते हुए कहा था वकीलों को केवल अपनी फीस को ध्यान में रख बार-बार स्थगन नहीं लेना चाहिए ।
न्याय प्रक्रिया में विलम्ब को दूर करने निम्न सुझावों पर विचार किया जा सकता है :-
१. न्यायाधीशों की समुचित संख्या में पदस्थापना। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत जैसे देशों में श्रेणी में प्रकरणों के अनुपात में न्यायधीशों की संख्या न्यूनतम है ।
२. कम्प्यूट्रीकृत ऐसी प्रणाली का विकास जिसमें सभी स्तर के न्यायालयों को टर्मिनल से जोड़ना, जानकारी, सलाह, सुझाव प्रकरणों की स्थिति की जानकारी उंगलियों पर उपलब्ध हो ।
३. प्रकरणों के प्रकार पक्षकार के आधार पर नि:शक्त गरीबी रेखा के नीचे का पक्षकार विधवा, वरिष्ठ नागरिक, भूतपूर्व सेनानियों आदि के प्रकरणों का प्राथमिकता के आधार पर सुनवाई हो ।
४. न्यायालयों की कार्यावधि में १-१ घंटों की वृद्धि हो ।
छत्तीसगढ़ नव निर्मित व अपेक्षाकृत छोटा राज्य होने से अपने स्तर पर न्याययिक प्रक्रिया में सुधार कर अन्य प्रदेशों के लिए उदाहरण पेश कर सकता है।
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(ग्नऱ्ीऱ्ट्टऱ्द्भड्डए भद्भश्वए लछश्वल्ड्ड ऱ्स्ल् श्श्वख्द्भत्तीऱ्ल् श्त्तऱ् १९६१)
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