राम चरित मानस और भारतीय विधि समतुल्यता

गोस्वामी तुलसी दास रचित राम चरित मानस को मर्यादा पूर्ण ग्रन्थ माना जाता है उसके हरस्थल, हर भाव को भक्तों, सन्तों और विद्वानों ने समझा है वे अत्यन्त उन्दनीय और अनुकरणीय है। यह दुनिया का वह एक इकलौता ग्रन्थ इस मामले में भी है कि रचना कार ने इस ग्रन्थ को और इसकी कथा को अंतिम ग्रन्थ नहीं माना है। रचयिता ने कहा है कि अनेक युगों तक और अनेक लोगों द्वारा रामकथा का विस्तार अपने अपने तरीके से होता रहेगा। इसी कारण रामचरित मानस जैसे ग्रन्थ की एक चौथाई के समतुल्य एक लाइन लिख पाने की बुद्धि नहीं होते हुए भी विद्वान समाज के भारतीय विधि की समतुल्यता करने की हिम्मत किसी तरह जुटा रहा हॅू। मानस का ज्ञान वैसे भी मनन कर आंतरिक आत्म सुख प्राप्त करने के लिये ही है फिर भी धृष्टता पर आप का एतराज जायज होगा और आप के द्वारा प्रदत्त क्षमा का आभारी रहुंगा। प्राचीन युग में जो दण्ड संहिता अथर्वेद, वाल्मीकि रामायण महाभारत एवं अन्य पुराणों में वर्णित होकर भी अलग अलग थी उसे एकत्रित कर संहितावद्ध भी किया गया था किन्तु हजार वर्ष पूर्व से अभी तक अनेक युद्ध एवं शासन व्यवस्था के कारण भारतीय दण्ड व्यवस्था और नीति सिद्धान्तो पर प्रभाव पड़ा है। हम उधर क्या था जानना भी नहीं चाहते हैं। रामचरित मानस का काल भी भारतीय संस्कृतियों का काल नहीं था और उस समय भी भारतीय नीतियों का प्रभाव राजशासनों पर नहीं थी फिर भी तुलसी दास ने अपनी रचना पर काल का कम से कम प्रभाव पडऩे दिया है और जहां भी आवश्यकता हुई अपने ग्रन्थ में विशुद्ध भारतीय नीति को ही उल्लेख किया है। रामचरित मानस का उद्देश्य यह भी है कि व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र का सर्वांगीय विकास हो और रामराज्य की स्थापना हो। इस कारण रामचरित मानस में अन्य ग्रन्थो की तरह भरत या विभीषण के द्वारा अगल से नीकियों के संदर्भ में नहीं कहलाकर कथा प्रसंग के अन्तर्गत ही लिया गया है। अत्याचारियों को जो दण्ड दिया गया वह ईश्वरीय शक्ति से सम्पन्न स्वयं राम या ईश्वरीय और दैवी शक्तियों से सम्पन्न उनके सहयोगियों द्वारा होने से मानवदण्ड से ऊपर उठकर ईश्वरीय और दैवी विधि की परिकल्पना है। आइये रामचरित मानस के कुछ स्थलों से आज की कानूनी व्यवस्था से समतुल्यता और भिन्नता पर एक दृष्टि डालते है :-

मानस के मूल रचयिता शिव जी ने सर्वप्रथम अपनी पत्नी (मॉ सती) को दण्ड दिया है वह शिव सत्यं शिवम् सुन्दरम है। सत के रुप में सती जी उनके साथ है। विधि और न्याय सत्य पर आधारित माने जाने जाते है। अगस्त ऋषि के आश्रम में शिव और सती दोनों ने एक साथ जाकर कथा सुना। सती ने कथा ध्यान से नहीं सुना। इस कारण सती जी कथा को पूरी तरह समझ नहीं सकीं। आश्रम से कथा सुनकर दोनों रास्ते में आ रहे है। शिव जी ने कथा सुनी थी उसका मनन करते आ रहे है और कैलाश पहुंचने के पूर्व कनन की स्थिति में रहते हुए शारीरिक रुप से दण्डक वन पहुंचते है। राम का अवतार उस समय नहीं हुआ था किन्तु कथा के मनन में संयोग से शिव दण्डकारण्य में भगवान राम और लक्ष्मण को सीता की खोज करते हुए तक की कथा में आते है। दण्डकारण्य तो यही है जहां भगवान सीता की खोज करेंगे ऐसा सोचकर चिंतन में अपार प्रेम उत्पन्न होता है और प्रेमते प्रगट होहि में जाना के सिद्धंात में राम लक्ष्मण सीता को खोज करते प्रकट हो जाते है। शिव जी ने सोचा कि भगवान राम प्रकट अवश्य हो गये है लेकिन इनके पास जाने से और प्रमाण करने से संसार के लोगों को पता चल जायेगा और जिस उद्देश्य को लेकर रामावतार होना है उस में विघ्र पड़ सकता है इस कारण शिव ने दूर से ही जय सच्चिदानन्द कहकर प्रणाम किया। सती ने कहां कि हे प्रभू सम्पूर्ण विश्व आप को भजता है और आप ही सर्ववन्दनीय है। राजा के दो पुत्र जो स्वयं ही अपनी पत्नी के दु:ख के कारण दुखी है और पागलों की भांति पेड़ पौधों, जीव जन्तुओं से सीता का पता पूछ रहे है। वे सतचिद आनन्द और परब्रह्म कैसे है। आपने इन राजकुमारों को क्यों प्रणाम किया। शिव ने सती को अगस्त ऋषि से सुनी कथा पर गौर करने को कहा किन्तु जब पाया कि सती ने कथा को भली भांती नहीं समझा है तब उन्होंने उसी कथा के आधार पर सती को समझाने की कोशिश की। सती ने दृढ़ मत बना लिया कि वे इन राजकुमारों की परीक्षा अवश्य लेगी। शिव ने सावधानी पूर्वक परीक्षा के लिए जाने की अनुमति प्रदान किया। सती ने सीता का रुप बना कर राम लक्ष्मण को परीक्षण करने का प्रयास किया। राम ने उन्हें सती के ही रुप में देखा और पहचाना। सती जी को सत्य का आभाष हुआ और वहां से घबरा कर भागी शिव के पास पहुंची। शिव सती से सत्य जानकारी देने का प्रयास करते है कि आपने परिक्षा लेने का क्या तरिका अपनाया :-

गई समीप महेश तब, हंसि पूछी कुशलात। लीन्हि परीक्षा कवनविधि, कहहु सत्य सब बात।।

सती ने शिव के भय से सत्य को छिपाया और कहां कि मैने तो कोई परीक्षा ही नहीं लिया। मैं वहा जाकर आप की ही तरह जयसच्चिदानन्द कहकर प्रणाम किया और वापस आ गई।

सती समुझि रघुबीर प्रभाऊ, भयवश शिव सन् कीन्हि दुराऊ। कछु न परीक्षा लीन्हि गोसाई, कीन्ह प्रणाम तुम्हारिहिनाई।।

शिव ने ध्यान मुद्रा से देखा तो उसमें सीता का कपट वेशधारण करने का सती को दोषी पाया। सती के साथ प्रीति रखना अनीति मानते हुए शिव ने प्रण किया कि सती के इस शरीर से अब आगे सम्बंध नहीं रहेगा। उसी समय आकाशवाणी हुई जिसमें शिव के प्रतिज्ञा की प्रसंशा की गई। सती ने देखा कि शिव के व्यवहार और वर्ताव बदल गए है और वे व्याकुल हैं :-

शंकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहित्यजेउ हृदय अकुलानी।।
शिव ने असत्य के लिए सती को दण्ड दिया और उनका परित्याग किया। आज विधि में असत्य केवल इस लिये दण्डनीय है कि कोई न्यायालय में दिये गये अपने साक्ष्य से मुकर जावे या साक्ष्य में सत्य प्रकट करने से मुकर जावे। किन्तु सिद्धांत रुप में सत्यमेवजयते का सिद्धांत वरकरार है। इसी प्रसंग में आगे सती जी शिव के अपमान को नहीं सह पाने से आत्म दाह किया, तब शिव ने वीरभद्र को भेजकर यज्ञ का विध्वंश तो कराया ही और जो देवता सती के आत्मदाह के समय मौन रहे उन्हें भी कानूनी दण्ड दिया :-

जग्य विधंसजाइ तेहिं कीन्हा। सकल सुरन्ह विधिवत फलदीन्हा।।

देवताओं को अपराध के लिये सामूहिकदण्ड मिला जो आज भी सामूहिक अपराध में सामोहिकदण्ड की व्यवस्था है। भ्रमवश समाज में इन्ही सती जी के आत्मदाह के कारण सती प्रथा प्रचलित हो गई जबकि ऐसा अपराध दण्डनीय था और ऐसी अनुमति नहीं थी। आज भी सतीप्रथा प्रतिबंध अधिनियम में सामूहिक दण्ड का प्रावधान है। मानस में कामदेव द्वारा शिव को कामुकता पैदा करने के प्रयास में सम्पूर्ण श्रृष्टि चर अचर में कामुकता फैली। इसके लिये कामदेव को मृत्युदण्ड दिया गया। आज भी किसी नारी को सीटी मारकर या अंग स्पर्श कर कामुकता उत्पन्न कराने का प्रयास दण्डनीय है किन्तु पुरुषों को यह सुविधा प्राप्त नहीं है। सामाजिक रुप से भी अश्लीलता दण्डनीय है किन्तु भारतीय सभ्यता और संस्कृति के सापेक्ष दण्डनीय नहीं है। इलेक्ट्रानिक दर्शन के यंत्रों में अश्लीलता इतनी अधिक हो गई है कि जो लोग इलेक्ट्रानिक युग के पूर्व से ही समाज में है उनका परिवार के साथ घर में बैठना कठिन है किन्तु भारतीय सभ्यता और सांस्कृति को दफन की हुई नये युग के मानव की नई संस्कृति पैदा हो चुकी है इस संदर्भ में रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में कलिवर्णन का कथन चरितार्थ होगा :-

कलिकाल विहाल किए मनुजा। नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।।

कामदेव को दिये गये दण्ड पर उसकी पत्नी रती ने मर्सी अपील किया और शिव ने स्वीकार किया। कष्ण के पुत्र प्रद्युम्र के रुप में शरीर धारण रकने का वरदान दिया। आज भी दण्ड का लघुकरण करने के लिये भारतीय परवीक्षा अधिनियम और दण्डप्रक्रिया सहित संविधान में व्यवस्था है। आगे की कथा में भानुप्रताप का प्रसंग है। भानुप्रताप उस राजा का पुत्र था जिसका नाम सत्यकेतु था। सत्य ही जिसकी पताका थी। अर्थात उसकी पहचान या उसका चिन्ह सत्य था। भातुप्रताप भी अपने पिता के ही गुणों और कर्मो से युक्त था किन्तु जंगल में उसे एक कपटी मुनि मिला जिससे उसने असत्य वचन कहा कि मैं भानुप्रताप राजा का सचिव हूं।

विस्वविदित एक कैकयदेस्। सत्यकेतु तहॅ वसई नरेस्।। 
नाम प्रताप भानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा।।

इसके कारण वह असत्य के मार्ग पर चला गया और उसे राक्षस की संस्कृति में रावण बन कर पैदा होना पड़ा। उसे श्राप द्वारा दण्डित किया गया कि वही राक्षस योति में पैदा हुआ।

आगे की कथा में बताया गया है कि रावण प्रतापीराजा हुआ और उसके द्वारा तथा उसके संरक्षण में अन्याय और अत्याचार चरम तक पहुंच गया। उसका भाई छह महीने सोता था और एक दिन के लिए वह कुम्हकर्ण जगता था तो सम्पूर्ण श्रृष्टि ही नष्ट होने की स्थिति में आ जाती थी। शुभकार्य करने वालों को मारडाला जाता था और उसके वन्दी गृह में रखा जाता था। विश्वामित्र नामक ऋषि ने अपराध और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष करने का निर्णय लिया और इसके लिये उन्होंने राम और लक्ष्मण को युद्ध कला में निपुण किया तथा अस्त्रों-शस्त्रों भण्डार दिया।

गधितनय मन चिन्ता व्यापी।
हरि विनु मरहिंन निसिचर पापी।।
तब रिषि निज नाथहिं चीन्ही।
विद्यानिधि कहुं विद्या दीन्ही।।
जाते लाग न छुधा पिपासा।
अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।
आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु आश्रम आनि। कन्द मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि।।

यही से अन्याय और अत्याचार को समाप्त करने तथा न्याय की स्थापना के लिये मार्ग प्रशस्त होता है। समाज में जब भी अन्याय बढ़ा नौजबानों की ओर ही समाज ने कुर्वानी के लिये देखा और भारत की संस्कृति, किमिदंतिया और इतिहास साक्षी है कि भारत के नोजवानों ने कभी भी अत्याचार अन्याय नहीं सहा। अनेक बार भारत में नौजबानों ने क्रान्तिकारी परिवर्तन किया है। ताड़का राक्षकों की संस्कृति की मुख्य स्रोत थी और वह महावीर महिला थी। वह राक्षसों की हिम्मत भी थी इस कारण रामने उसे मृत्युदण्ड दिया। सुवाहु को भी इस युद्ध में मृत्युदण्ड दिया किन्तु मारीच मृत्युदण्ड का पात्र नहीं था। इस कारण रामने बिना फल वाला वाण उसके ऊपर प्रहार किया जिससे वह समुद्र के किनारे गिरा। अर्थात उसको क्षेत्रपरिवर्तन का दण्ड मिला। आज भी जिलावदर करने का कानून लागू है।

इसी स्थल पर बलात्कार से पीडि़त निरापराध महिला जो श्राप से अथवा दुख से पत्थर की भांति निस्चेस्ट और शान्त हो गई थी जिसको निरापराध होते हुए भी दण्डित और तिरस्कृत किया गया था उस अहिल्या का कल्याण भी किया और उसको सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाई तथा प्रतिस्थापित किया। 
(शेष अगले अंक में)
के.एल.तिवारी, अधिवक्‍ता, दुर्ग 

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