प्रधान संपादक की बात...

स्वतंत्रता दिवस विशेषांक पर विशेष


खरे साहब ने भी अपने एक लेख में गाजियाबाद न्यायालय में हाल ही में हुई गड़बड़ियों की शिकायतों के हवाले हमारी न्यायपालिका की आज़ादी को बरकरार रखने और भ्रष्टाचार को रोकने हेतु न्यायालयों में दो चरणों की आन्तरिक जाँच व्यवस्था का सुझाव दिया है । `सेतु समुद्रम' मामले में उच्चतम न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति जी.एस. सिन्घवी ने एक सूबे के मुख्यमंत्री और एक केन्द्रीय मंत्री को ये कड़ी समझाईश दी कि ``आप लोग हर चीज से ऊपर नहीं है'' वहीं सरकारी बंगलों में अवैध रुप से काबिज बड़े लोगों के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशगण उदासी भरे मन से ये भी कहते सुने जाते हैं कि ``इस मुल्क़ की भगवान भी चाहे तो मदद नहीं कर सकता'' ।
कुल मिलाकर इन साठ सालों में मुल्क़ के दीगर हालातों को अगर छोड़ भी दे तो हमें अपने आत्ममंथन में ये ज़रुर सोचना है कि आज़ाद रहते हुए भी हम हमारे विधिक समाज (णल्श्रीड्य छड्डीऱ्ल्ड्डछरूऱ्ए) में किन बुराईयों के गुलाम आज भी हैं । हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय में हमारे दो वरिष्ठों के आचरण पर हम स्तब्ध हैं । हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है ये तो वक्त बताएगा पर इतना तो तय है कि हम अपनी मर्यादाआें, गरिमा और व्यवसायिक आचार व्यवहार को ताक में रखकर कुछ भी कर सकने की आज़ादी से लैस नहीं हो सकते ।
जला है मेरा नशेमन मैं फिर बना लूंगा
चमन पे आँच न आए, मेरी दुआ ये है
आईए, आप और हम मिलकर पूरी ईमानदारी से अपनी ईमानदार कोशिशों के साथ एक मजबूत भारत के निर्माण में जुट जाएं, सही मायनों में तभी हमारी आज़ादी की सालगिरह पूरे जश्न से मनाने का हमें हक होगा और ये हमारी अमर शहीदों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।
``फरिश्तों से मुश्किल है इंसान होना
मगर इसमें पड़ती है मेहनत ज़्यादा''


- शकील अहमद सि ीकी
संपादक
९८२७१-०९९७५

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