विधि व्यवसाय - भविष्य की ओर बढ़ते कदम एवं चुनौतियाँ

जिला अधिवक्ता संघ द्वारा आयोजित निबंध प्रतियोगिता में प्रथम स्थान घोषित निबंध

विधि लोक तंत्र की रीढ़ की हड्डी है इसके बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती । विधि विहीन देश या समाज की स्थापना का विचार करना पानी पर इबारत लिखने का प्रयास करना है। भारत जैसे लोकतांत्रित देश में विधि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त और विधि व्यवसायी बुद्धजीवी वर्ग में गिने जाते हैं अत: सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भारत की विधि और उसका इतिहास कितना महान है ।
समाज के प्रत्येक क्षेत्र में तकनीकी प्रगति के साथ ही साथ अपराध और अपराध को अंजाम देने की पद्धतियों में परिवर्तन हुआ है जिससे न्यायाधीश और अधिवक्ताआें को चुनौती पूर्ण परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, कई ऐसे अपराध घटित होते हैं उनका या उसके सजा के संबंध में विधिक ग्रंथों में उल्लेख ही नहीं है । क्योंकि यह अपराध समय की देन है अतैव तकनीकी प्रगति और अपराध के पद्धतियों ने हमें संकेत किया है कि समय के साथ विधिक ग्रंथों में परिवर्तन - परिवर्धन एवं संशोधन आवश्यक तथा समीचीन है ।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अधिवक्ता वर्ग की भागीदारी सर्वाधिक रही है । कई ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहे जो देश सेवा और समाज सेवा के लिए विधि की पढ़ाई कर अपना संपूर्ण जीवन सेवा को समर्पित कर विधि एवं न्याय की गरिमा को बनाये रखा । हमारे पूर्वजों की देन है कि, आज लोकतंत्र के चारों स्तंभों में से सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग के रुप में विधि स्थापित हो चुका है तथा जनमानस में विश्वास और आस्था का केन्द्र बना हुआ है । ऐसे में विधि व्यवसाईयों का कर्तव्य और भी बढ़ जाता है कि, विधि की गरिमा बनाये रखें ।
आज भारतीय न्याय तंत्र मुकदमों के बोझ में दबा है । निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सवा दो करोड़ मामले लंबित हैं, इनमें से कई मामले तो ४० से ५० वर्ष पुराने हैं । जबकि कई फैसले तो पक्षकारों के मौत के बाद आ पाते हैं । आज की स्थिति यह है कि अंतिम फैसला सुनने तक अदालत के सैकड़ों चक्कर लगाने पड़ते हैं । फैसला आ भी जाता है तो उसकी नकल प्राप्त करने के लिए महिनों गुजर जाते हैं इस पूरी प्रकिया में धन व समय तो खर्च होता ही है यातना भी झेली पड़ती है । विचाराधीन अभियुक्त तो सबसे ज्यादा पिसते हैं इस सबके बीच एक अधिवक्ता के लिए विचाराधीन कैदी को शीघ्र न्याय दिलाने के लिए अथक् परिश्रम के बाद भी समय पर न्याय मिलने की संभावना कम ही होती है जो ``देर से न्याय, न्याय से इंकार उक्ति को चरितार्थ करती है ''।
वर्तमान में विधि व्यवसाय में युवा एवं महिलाआें की भागीदारी नगण्य बनी हुई है क्योंकि विधि व्यवसाय में नव अभिवक्ताआें को भविष्य निर्माण में व्यवहारिक कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है । ऐसे में पारिवारिक श्रंखला से जुड़े विधि व्यवसायी ही ज्यादातर देखने को मिलता है। सम्पूर्ण समाज में भ्रष्टाचार अपना पैर पसार रहा है, इससे लड़ने के लिए न्यायिक व्यवस्था में भीतर से पहल होनी चाहिये । लोकतंत्र की मजबूती और कानून का शासन बनाये रखने के लिए न्याय पालिका का हर पहलू से साफ सुथरा और साधन सम्पन्न होना जरुरी है । जन मानस में आस्था और विश्वास बनाये रखने में भी अधिवक्ताआें की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है । क्योंकि अधिवक्ता केवल व्यवसायी ही नहीं है, अपितु लोक तंत्र एवं न्याय तंत्र की गरिमा का संरक्षक भी है ।
कुछ अधिवक्ता बंधुआें का मत है कि बिना झूठ के काम नहीं चलता । परन्तु हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी वकालत में सत्य की कसौटी पर खरे रहे । इसकी इसी व्यवहार के कारण वकालत के पेश में भी इन्हें बड़ा ईमानदार वकील माना जाता था । न्यायालय इन्हें सम्मान देता था, उनके शब्दों को न्यायालय द्वारा महत्व दिया जाता था । विदेश में किसी नये वकील को इतना सम्मान मिलना गर्व की बात थी । गाँधी जी ने विदेश में साबित कर दिया था ``सत्य से समझौता किये बिना भी वकालत करना संभव है ।'' निश्चित रुप से भारतीय विधि का इतिहास गर्व करने योग्य है और हम केवल भूतकाल की जुगाली करके वर्तमान को सुनहरा नहीं बना सकते । भूतकालीन गौरव न्यायिक परम्परा को बनाये रखने के लिए हमें सामूहिक भगीरथ प्रयास करना होगा । जिससे न्याय में देरी, न्याय से इंकार कथन के मध्य अधिवक्ता और पक्षकार को पिसना न पड़े । न्याय के इतिहास की कुछ घटनाएं तो ऐसे हैं जिसके संबंध में ``न भूतों, न भविष्यते'' एक वाक्य सम्पूर्ण गाथा कहता है ।
९० के देश में सुप्रीम कोर्ट ने आई.टी. का उपयोग कार्यालयीन प्रबंधन में किया और त्वरित न्याय की एक नई राह तैयार की जिसमें अधिवक्ता और न्याय दोने का भविष्य परिलक्षित हो रहा है, केन्द्र सरकार की इकाई नेशनल इनफारमेटिक्स (निक) के सहयोग से कोर्ट इनफारमेशन सिस्टम (कोर्टिक्स) का साफ्टवेयर विकसित किया जिसकी मदद से ४० हजार से १ लाख तक के लंबित मामले कम हुए इससे अधिवक्ताआें व पक्षकारों को इंटरनेट पर काजलिस्ट, सुनवाई की तारीख, फैसले की कॉपी, दिन प्रतिदिन के न्यायालयीन आदेश उपलब्ध होने लगे हैं । यह सब इसलिए भी संभव हो पाया है क्योंकि अधिवक्ताआें और न्यायाधीशों ने कई सूचना तकनीक को अदालती कार्यवाही में व्यवहार में लाने के लिए व्यक्तिगत अभिरुचि दिखाई ।
न्यायिक तंत्र के आधुनिकीकरण के आगे अभी बाधायें बहुत हैं, लेकिन विधिक प्रणाली के पाँच प्रमुख घटक पक्षकार, अधिवक्ता, जज, न्यायिक अधिकारी और सरकार पूरी इच्छा शक्ति के साथ आगे बढ़े तो विधि व्यवसाय का भविष्य उज्जवल होगा । और वह दिन दूर नहीं जब देर से न्याय न के बराबर की अवधारणा इतिहास की बात हो जायेगी ।

टिकेन्द्र कुमार यदु, अधिवक्ता, दुर्ग

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